आओ जैन धर्म को जाने
ऋषभदेव जी राजा नाभिराज के पुत्र थे। नाभिराज जी अयोध्या के
राजा थे। ऋषभदेव जी के सौ पुत्र तथा एक पुत्री थी। एक दिन परमेश्वर एक
सन्त रूप में ऋषभ देव जी को मिले, उनको भक्ति करने की प्रेरणा की, ज्ञान
सुनाया कि मानव जीवन में यदि शास्त्राविधि अनुसार साधना नहीं की तो मानव
जीवन व्यर्थ जाता है। वर्तमान में जो कुछ भी जिस मानव को प्राप्त है, वह पूर्व
जन्म-जन्मान्तरों मे किए पुण्यों तथा पापों का फल है। आप राजा बने हो, यह
आप का पूर्व का शुभ कर्म फल है। यदि वर्तमान में भक्ति नहीं करोगे तो आप
भक्ति शक्तिहीन तथा पुण्यहीन होकर नरक में गिरोगे तथा फिर अन्य प्राणियों के
शरीरों में कष्ट उठाओगे। (जैसे वर्तमान में इन्वर्टर की बैटरी चार्ज कर रखी है
और चार्जर निकाल रखा है। फिर भी वह बैटरी कार्य कर रही है, इन्वर्टर से पँखा
भी चल रहा है, बल्ब-ट्यूब भी जग रहे हैं। यदि चार्जर को फिर से लगाकर चार्ज
नहीं किया तो कुछ समय उपरान्त इन्वर्टर सर्व कार्य छोड़ देगा, न पँखा चलेगा,
न बल्ब, न ट्यूब जगेंगीं। इसी प्रकार मानव शरीर एक इन्वर्टर है। शास्त्रा अनुकूल
भक्ति चार्जर है।, परमात्मा की शक्ति से मानव फिर से चार्ज हो जाता
है अर्थात् भक्ति की शक्ति का धनी तथा पुण्यवान हो जाता है।
यह ज्ञान उस ऋषि रूप में प्रकट परमात्मा के श्री मुख कमल से सुनकर
ऋषभदेव जी ने भक्ति करने का पक्का मन बना लिया। ऋषभदेव जी ने ऋषि जी
का नाम जानना चाहा तो ऋषि जी ने अपना नाम ’’कवि देव’’ अर्थात् कविर्देव
बताया तथा यह भी कहा कि मैं स्वयं पूर्ण परमात्मा हूँ। मेरा नाम चारों वेदों में
’’कविर्देव’’ लिखा है, मैं ही परम अक्षर ब्रह्म हूँ।
सूक्ष्म वेद में लिखा है :-
ऋषभ देव के आइया, कबी नामे करतार।
नौ योगेश्वर को समझाइया, जनक विदेह उद्धार।।
भावार्थ :- ऋषभदेव जी को ’’कबी’’ नाम से परमात्मा मिले, उनको भक्ति
की प्रेरणा की। उसी परमात्मा ने नौ योगेश्वरों तथा राजा जनक को समझाकर
उनके उद्वार के लिए भक्ति करने की प्रेरणा की। ऋषभदेव जी को यह बात रास
नहीं आई कि यह कविर्देव ऋषि ही प्रभु है परन्तु भक्ति का दृढ़ मन बना लिया।
एक तपस्वी ऋषि से दीक्षा लेकर ओम् (ऊँ) नाम का जाप तथा हठयोग किया।
ऋषभदेव जी का बड़ा पुत्र ’’भरत’’ था, भरत का पुत्र मारीचि था। ऋषभ देव जी
ने पहले एक वर्ष तक निराहार रहकर तप किया। फिर एक हजार वर्ष तक घोर
तप किया। तपस्या समाप्त करके अपने पौत्र अर्थात् भरत के पुत्र मारीचि को
प्रथम धर्मदेशना (दीक्षा) दी। यह मारीचि वाली आत्मा 24वें तीर्थकर महाबीर जैन
जी हुए थे। ऋषभदेव जी ने जैन धर्म नहीं चलाया, यह तो श्री महाबीर जैन जी
से चला है। वैसे श्री महाबीर जी ने भी किसी धर्म की स्थापना नहीं की थी। केवल
अपने अनुभव को अपने अनुयाईयों को बताया था।
वह एक भक्ति करने वालों का
भक्त समुदाय है। ऋषभदेव जी ‘‘ओम्‘‘ नाम का जाप ओंकार बोलकर करते थे।
उसी को वर्तमान में अपभ्रंस करके ’’णोंकार’’ मन्त्र जैनी कहते हैं, इसी का जाप
करते हैं, इसको ओंकार तथा ऊँ भी कहते हैं।
हम अपने प्रसंग पर आते हैं। जैन धर्म ग्रन्थ में तथा जैन धर्म के अनुयाईयों
द्वारा लिखित पुस्तक ’’आओ जैन धर्म को जानें’’ में लिखा है कि ऋषभदेव जी
(जैनी उन्हीं को आदिनाथ कहते हैं) वाला जीव ही बाबा आदम रूप में जन्मा था।
अब उसी सूक्ष्म वेद की वाणी है। :-
वही मुहम्मद वही महादेव, वही आदम वही ब्रह्मा।
दास गरीब दूसरा कोई नहीं, देख आपने घरमा।।
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जीने की राह और ज्ञान गंगा
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